एनएफएचएस-4 रिपोर्ट | प्रदेश की महिला बाल विकास मंत्री के प्रभार वाले जिले में स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति बेहद गंभीर

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एनएफएचएस-चार में पन्ना जिले की स्थिति से अवगत कराते प्रख्यात समाजसेवी सचिन कुमार जैन एवं बगल में बैठे यूसुफ़ बेग।

जन्म के साथ ही भूखे रहने को विवश हैं 67 प्रतिशत नवजात

कुपोषण के कारण 42 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन का हो रहे शिकार

मात्र ढ़ाई प्रतिशत महिलाओं को मिल रहीं सम्पूर्ण प्रसव पूर्व सेवाओं का लाभ

पन्ना। रडार न्यूज   मध्यप्रदेश की महिला एवं बाल विकास विभाग की मंत्री ललिता यादव के प्रभार वाले पन्ना जिले में बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण के मानक बेहद गंभीर स्थिति में है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफएचएस-चार) के हैरान करने वाले नतीजों से यह बात निकलकर सामने आई है कि पन्ना जिले में सिर्फ 33 प्रतिशत बच्चों को ही जन्म के पहले घंटे में माँ का पोष्टिक दूध नसीब होता है। इस तरह शेष 67 प्रतिशत नवजात शिशुओं को जन्म के साथ ही भूखे रहने का दर्द सहन करना पड़ता हैं। कुपोषण के कलंक के कारण मध्यप्रदेश का कालाहांडी कहलाने वाले पन्ना जिले के खराब हालत का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि यहां पैदा होने वाले 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के कारण ठिगनेपन का शिकार हो रहे हैं। खुद को प्रदेश की महिलाओं का भाई और बच्चों का मामा कहने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के राज में कुपोषण, मातृ-शिशु मृत्यु दर, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और प्रसव पूर्व महिलाओं की जांच में घोर लापरवाही बरती जा रही है। जिसके गंभीर दुष्परिणामों को एनएफएचएस-चार के सर्वेक्षण ने उजागर किया है।

शिशु जीवन और पोषण पर आधारित मीडिया फोरम में उपस्तिथ पन्ना जिले के मीडियाकर्मी।

इस सर्वेक्षण रिपोर्ट से पन्ना जिले के स्वास्थ्य विभाग और महिला एवं बाल विकास के दावों, धरातल पर योजनाओं के क्रियान्वयन और जिम्मेदार अधिकारियों-कर्मचारियों की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। मातृ एवं शिशु मृत्यु दर की अधिकता वाले इस जिले में केवल 2.5 प्रतिशत महिलाओं को ही सम्पूर्ण प्रसव पूर्व सेवाएँ प्राप्त हो रही हैं। इससे बड़ी बिडंबना भला और क्या होगी। पन्ना जिले की वास्तविकता यह है कि गर्भावस्था से ही यहां महिलाओं और उनकी कोख में पलने वाले बच्चों की चुनौतियों ही शुरुआत हो जा रही है। विकास संवाद मानव विकास शोध संस्था और पृथ्वी ट्रस्ट द्वारा नवजात शिशु, शिशु जीवन और पोषण पर आधारित मीडिया फोरम के दौरान शोधकर्ता सचिन कुमार जैन ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-चार) के अध्ययन निष्कर्षों को प्रस्तुत करते हुए यह बताया कि पन्ना में केवल 13.8 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं तक ही चार या इससे अधिक प्रसवपूर्व भ्रमण हो रहे हैं। सुरक्षितमातृत्व और नवजात शिशु मृत्यु को कम करने के लिए बेहद जरूरी हैकि हर गर्भवती महिला को पूर्ण प्रसव पूर्व जांचों की लाभ (जिसमें एएनएम द्वारा चार भ्रमण, टिटनेस के टीके, 100 आयरन-फोलिक एसिड गोलियां, वज़न, रक्तचाप जी आंच आदि शामिल हैं) मिलना ही चाहिए, किन्तु पन्ना में केवल 2.5 प्रतिशत महिलाओं को ही सम्पूर्ण प्रसव पूर्व सेवाएँ प्राप्त हो रही हैं। मध्यप्रदेश में सीधी जिले (1.7 प्रतिशत) के बाद पन्ना खराब स्थिति वाले जिलों की सूची में दूसरे स्थान पर है।

नवजात को बीमारियों से बचाता है स्तनपान

सांकेतिक फोटो।

मानक सिद्धांत बताते हैं कि जन्म के बाद का स्तनपान बच्चों को संक्रमण से बचाता है, इसमें उच्च गुणवत्ता का प्रोटीन, वसा, कैलोरी, लैक्टोज़, विटामिन और अन्य पोषक तत्व होते हैं, जो बच्चे की तमाम जरूरतों को पूरा कर देते हैं। यह पचाने में आसान होता है और शिशु में बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता विकसित करता है। बच्चों के जीवन के नज़रिए से बेहद महत्वपूर्ण इस पहलू को हर स्तर पर नज़रंदाज़ किया गया है। अध्ययनों से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि मध्यप्रदेश में बच्चों के जीवन से सम्बंधित महत्वपूर्ण पहलुओं पर अभी सघन प्रयास किये जाना शेष हैं। एनएफएचएस-चार के अनुसार पन्ना जिले में 74.4 प्रतिशत संस्थागत प्रसव हुए, किन्तु जन्म के पहले घंटे में मां का दूध (कोलेस्ट्रम फीडिंग) केवल 32.7 प्रतिशत बच्चों को ही हासिल हुआ। इससे दो बातें स्पष्ट रूप से नज़र आती हैं। पहली कि संस्थागत प्रसव वास्तव में पूर्ण रूप से सही प्रक्रिया से लागू नहीं किया जा रहा है। यदि ऐसा होता तो कम से कम 74.4 प्रतिशत बच्चों को तो जन्म के एक घंटे के भीतर पहला पीला गाढ़ा दूध मिल ही जाता। दूसरी बात यह कि लगभग 67 प्रतिशत यानी दो तिहाई बच्चे जन्म के पहले ही क्षण से भूख का सामना करने को मजबूर होते हैं।

सिर्फ 12 प्रतिशत बच्चों को मिलता है ऊपरी आहार

पन्ना जिले की प्रभारी एवं महिला बाल विकास मंत्री ललिता यादव।

श्री जैन ने बताया कि दूसरा पहलू यह है कि जन्म के बाद के छः महीनों तक बच्चों को केवल और केवल माँ का दूध ही पिलाया जाना चाहिए। जबकि पन्ना जिले में 58. 6 प्रतिशत बच्चों को ही केवल स्तनपान हासिल हो रहा है। यानी शेष बच्चों को पानी, शहद, घुट्टी या अन्य सामग्री का आहार शुरू कर दिया जा रहा है. यह बच्चे के जीवन के लिए घातक व्यवहार साबित होता है, क्योंकिअन्य सामग्रियों से वे जल्दी ही डायरिया सरीखे संक्रमण के शिकार हो जाते हैं। उल्लेखनीय है कि जन्म के बाद के 28 दिन सबसे संवेदनशील होते हैं। नवजात शिशु की मृत्यु की आशंका पांच साल की उम्र के बच्चे की मृत्यु की आशंका से 30 गुना ज्यादा होती है। इस विषय को नज़रंदाज़ किया जाना अपने आप में असंवेदनशीलता का परिणाम है। यह बहुत जरूरी है कि सरकार यह नज़र रखे कि डिब्बाबंद बाल आहार (इन्फेंट फार्मूला) को बढ़ावा देने के लिए ही कहीं स्तनपान को सीमित तो नहीं किया जा रहा है? वास्तव में इस विषय को विकास की योजना के केंद्र में लाने की जरूरत है। इसके बाद एनएफएचएस-चार से पता चल रहा है कि केवल 12. 6 प्रतिशत बच्चों को छः महीने की होते ही पर्याप्त ऊपरी पोषण आहार मिल पा रहा है। शेष 89 प्रतिशत बच्चे, जो शारीरिक और मानसिक विकास के दौर में होते हैं और उन्हें अच्छे पोषण की जरूरत होती है, भूख के साथ विकास करते हैं। जिले में 42. 3 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन (स्टनटिंग) के शिकार हैं। बच्चों की लम्बाई को बढ़ने से रोकने वाला यह कुपोषण एक पीढी से दूसरी पीढ़ी तक बहने वाली खाद्य और पोषण असुरक्षा के कारण होता है और इसके बहुत गहरे असर होते हैं। जो बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं, वे स्कूल भी देर से जा पाते हैं और आगे चल कर जीवन में उनकी आय अर्जित करने की क्षमता भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है। ऐसे समुदाय के साथ तब समाज यह मान्यता बनता है कि ये लोग, जिनमें से ज्यादातर आदिवासी, अनुसूचित जाति और अन्य वंचित तबकों के लोग होते हैं, श्रम और मेहनत नहीं करना चाहते हैं, आलसी होते हैं आदि आदि. वास्तव में हम उनसे भोजन छीन कर बचपन में ही उनकी क्षमताओं को सीमित कर देते हैं।

आठ साल में हुई 7 लाख शिशुओं की मौत

सांकेतिक फोटो।

मीडिया फोरम में पत्रकारों से संवाद में यह स्पष्ट हुआ कि बच्चों के जीवन, स्वास्थ्य और पोषण की चुनौतियों को केवल विभागीय योजनाओं तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता है। यदि स्थिति को वास्तव में बदलना है तो परम्पराओं और सामाजिक व्यवहार से लेकर समुदाय के जंगल, पानी, जमीन और कौशल तक के हकों को सुरक्षित करना होगा। वर्तमान में कुपोषण और बाल जीवन सुरक्षा के कार्यक्रमों में व्यापाक पहलू शामिल ही नहीं हो रहे हैं। इस फोरम में मातृत्व हक़ पर गहराई से चर्चा हुई। जिसमें यह उल्लेख किया गया कि हर गर्भवती महिला को आराम, पोषण और सुकून मिल सके, इसके लिए उन्हें कम से कम चाह माह की मजदूरी के बराबर की राशि मातृत्व हक़ की सहायता के रूप में दी जाना चाहिए, अन्यथा उन्हें लगातार मजदूरी पर जाते रहना होगा, जिससे महिला और बच्चे का जीवन संकट में बना रहेगा. यह चौंकाने वाली बात है कि हमारे राजनीतिक दल भी इस पहलू पर कोई पक्ष नहीं रखते हैं। मध्यप्रदेश में बच्चों को जन्म से ही खाद्य असुरक्षा और भूख के दर्द का सामना करना पड़ता है। यदि हमें समाज के विकास का पैमाना तय करना हैं, तो केवल बच्चों के स्वास्थ्य, पोषण और सुरक्षा के मानकों को ही विकास का पैमाना बनाया जाना चाहिए। भारत के सभी राज्यों के बीच नवजात शिशु मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश में है। जब हर एक हज़ार जीवत जन्म पर 32 बच्चे जन्म के 28 दिनों के भीतर ही मर जाते हों, तब यह जरूरी हो जाता है कि हम अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करें। विकास संवाद के अध्ययन से पता चला है कि वर्ष 2008 से 2016 के बीच मध्यप्रदेश में 6.80 लाख नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई है।